आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मीयता का माधुर्य और आनंद आत्मीयता का माधुर्य और आनंदश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मीयता का माधुर्य और आनंद
ईश-प्रेम से परिपूर्ण और मधुर कुछ नहीं
परमपिता परमात्मा से वियुक्त होकर जीव ने अपनी एक निराली सृष्टि बना ली है। छोटा बालक जिस तरह घर के आँगन में मिट्टी इकट्ठी कर एक छोटा-सा घरौंदा बनाकर उसमें विशाल आकार-प्रकार की साधन सामग्रियाँ चाहता है, पर न तो उनके लिए उसके उस छोटे-से घरौंदे में स्थान होता है, न पात्रत्व। इसलिए उसकी इच्छाएँ पूर्ण नहीं होती या जान-बूझकर पिता उन्हें पूरा नहीं करता। वह तो सब घर की व्यवस्था का स्वामी होता है, उसे सबका ही ध्यान रखना पड़ता है। इसलिए जितना उसका घरौंदा था, उसी अनुपात से दो-चार पैसे, छटांक दो छटांक सामग्री उसे दे देता है, पर उससे बच्चे को न सुख मिलता है, न संतोष। छोटी-सी इकाई में पूर्णता की इच्छा न रखने वाले बच्चे की तरह जीव को भी अंततः अपनी लघुता पर असंतोष और पीड़ा ही होती है।
तब वह अपने एकांत में, अंतःकरण की गहराई में मुख डालकर झाँककर देखता है तो पाता है कि अब तक वह जिन वस्तुओं की इच्छा कर रहा था वह तो बंधनरूप थीं। नित्य शाश्वत आनंद के लिए उनसे कुछ काम बनने वाला नहीं था। यह तो सब क्षणभंगुर वस्तुएँ थीं। रुपया, पैसा, वस्त्र-आभूषण, बँगले, पंखे, रेडियो, नौकरी, पद-प्रतिष्ठा यहाँ तक कि पिता-माता, पुत्र-पत्नी, सुहृद-सखा, परिवार भी एक दिन छूट ही जाता है, चाहे उससे कितना ही मोह बढ़ा लें, चाहे उससे कितना ही प्रेम कर लें। गीता में कहा है-"संसार में गुण ही गुण बर्तते हैं, जो सब वस्तुएँ जहाँ तक उनकी सीमा, मर्यादा और समय है, वहीं तक थोड़ा-सा सुख-संतोष प्रदान कर पाती हैं। उसके बाद जीव का पुनः वही अकेलापन। फिर वही लघुता फिर वही भय, फिर वही इच्छाएँ, फिर वही दौड़-धूप, आपा-धापी, अविश्राम, अविश्राम, अविश्राम ! न इच्छाएँ पिंड छोड़ती हैं और न महत्त्वाकांक्षाएँ। मृगमरीचिका की तरह सुख और शांति की चाह में जीव सारे संसार का परिमंथन किया करता है, पर हाथ सिवाय निराशा, कष्ट, अपमान, चिंता, द्वेष-ईर्ष्या, असफलता, विकलता के अतिरिक्त कुछ नहीं लगता। नैपोलियन जो अनेक राष्ट्रों का भाग्य-निर्माता था, वह भी कैसे दुःखद परिस्थितियों में मरा। महापुरुषार्थी सिकंदर का अंत वहाँ हुआ, जहाँ उसे दवा की व्यवस्था भी न हो सकी।
अपनी इस स्थिति पर विचार करते-करते जीव अपने पिता परमात्मा की शरण आता है। बहुत दिन के बाद निधि रूप में अपने सर्वस्व, अपने शाश्वत प्राण, अपने लक्ष्य, अपने गंतव्य, अपने प्रकाश को पाकर उसका अंतःकरण उमड़ने लगता है, वह कभी-कभी अपनी अब तक की गई बीती स्थिति पर दुःख और पश्चात्ताप करता है। फिर भगवान से स्नेहपूर्ण शिकायत करता है, उसे भय रहता है, कहीं पुन: इसी भ्रमजाल में न फँसना पड़े, इसलिए डरता हुआ जीव भगवान की स्तुति भी करता है-हे प्रभु ! संभव है संसार के झंझटों में मैं तुम्हें भूल जाऊँ, पर तुम मुझे छोड़ना नहीं। मैं तुम्हारा ही प्राण हूँ, मैं तुम्हारा ही अंश हूँ, माना कि प्रमाद बहुत किया, भूलें बहुत की, पर अब ऐसा ज्ञान दो प्रभु, ऐसी शक्ति दो, नाथ जिससे जर्जर जीवन की नाव पार लग जाए। आकर्षणों से भरे इस संसार सागर से जीवनतरिणी पार उतर जाए !
मुझे मालूम नहीं प्रभु ! तुमसे मैं बिछुड़ा क्यों ? क्या इसमें भी कुछ रहस्य है ? मैं अपनी इच्छा से संसार में आया या तुम्हीं मुझे अकेला छोड़कर मेरे सयानेपन पर, मेरी अतुकांत भूलों पर हँसने और उसका चिर आनंद लेने के लिए पर्दे में छुपे हो, किंतु हे प्रभु ! अब यह खेल खेलने की शक्ति मुझमें नहीं रही। मैंने संसार के माया रूप को जब से पहचान लिया है, तब से एक तुम्हारा ही प्रेम उमड़ रहा है। भीतर भी तुम्हारा प्रेम जाग रहा है और सृष्टि के कण-कण में भी तुम्हारा प्रेम प्रतिभासित हो रहा है। हे प्रभु ! यह कैसी पीड़ा है जो तुम्हें आँखों से अलग भी नहीं होने देना चाहती और तुम में मिलने, समा जाने का अवसर भी नहीं देती। अपनी तृणवत् सत्ता से थके हुए जीव को विश्राम दो, अपनी मधुर गोद में ले लो, अपने प्राणों में छिपा लो, जिससे भय, लज्जा और विषाद के संपूर्ण मल आवरण धुल जाएँ। यह सब तुम्हारे से ही संभव है। संसार की ममता में यह सब कहाँ। प्रेम के शाश्वत सिंधु ! तुम्ही इतने निर्मल हो कि संसार का सारा मल तुम्हारे अंदर आकर धुल जाता है। हे प्रभु ! तुम्ही इतने प्रकाशवान हो कि संसार का सारा अज्ञ-अंधियार तुम में समा जाता है। तुम निर्बल को भी बलवान करने वाले, घृणित को भी हृदय से लगा लेने वाले हो। तुम्हारी शरण छोड़कर जीव अन्यत्र जा भी नहीं सकता।
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